पिथौरागढ़ जनपद ने आजादी के आंदोलन में सैकड़ो स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को जन्म दिया है। इस सीमांत जनपद में मुनस्यारी के त्रिलोक सिंह पांगती एकमात्र स्वतंत्रता संग्राम सेनानी है, जो आजादी के संघर्ष में ही शहीद हो गए थे।

पिथौरागढ़। 1857 की क्रांति की अलख जगाते हुए 22 वर्ष, एक माह, 25 वें दिन स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में “इंकलाब” का नारा लगाते हुए त्रिलोक सिंह पांगती ने अपनी शहादत दे दी। शहीदे आजम भगत सिंह से भी कम उम्र में शहादत देने वाले त्रिलोक भारत की चुनिंदा शहीदों में एक है। यह अलग बात है कि शहीद त्रिलोक सिंह पर शहीदे आजम भगत सिंह की क्रांतिकारी आंदोलन के प्रभाव का कोई पुष्ट प्रमाण इतिहास में दर्ज नहीं है। शहीद त्रिलोक सिंह ने गांधी आश्रम चनौदा में जिस क्रांतिकारी तेवरों के साथ अंग्रेजों का मुकाबला निहत्थे हाथों से अकेले किया, वह शहीदे आजम तथा गांधी के अंहिसा आंदोलन का एक बेजोड़ पल था। आज एक नवंबर को इस शहीद का जन्म दिवस है। त्रिलोक सिंह पांगती पिथौरागढ़ जनपद के एकमात्र स्वतंत्रता संग्राम सेनानी है, जो आजादी के संघर्ष में शहीद हो गई थे। शहीद स्वतंत्रता संग्राम सेनानी त्रिलोक सिंह पांगती का जन्म एक नवंबर 1920 को ग्राम पंचायत दरकोट में मानसिंह पांगती के घर में हुआ। शहीद की माता का नाम श्रीमती देवी था। त्रिलोक सिंह ने प्राथमिक शिक्षा मीलम गांव में पूर्ण करने के बाद बागेश्वर जनपद के कांडा के मिडिल स्कूल में प्रवेश लिया। सन 1935 में मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद त्रिलोक सिंह ने अध्यापन कार्य को उचित माना। सन 1936 से 1938 तक सीमांत मुनस्यारी के ग्राम लास्पा के प्राथमिक विद्यालय में अध्यापन कार्य किया। अध्यापन कार्य छोड़ने के बाद स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित होकर ग्राम संयोजक के रूप में फरवरी से सितंबर 1939 तक कार्य किया। गांधी जी की विचारधारा से और अधिक प्रभावित होकर चीन सीमा से लगे मुनस्यारी तथा धारचूला क्षेत्र में घर-घर जाकर स्वतंत्रता आंदोलन के प्रचार का झंडा थामा।अक्टूबर 1939 में त्रिलोक सिंह पांगती गांधी आश्रम चनौदा अल्मोड़ा में वैतनिक कार्यकर्ता नियुक्त हुए। अल्मोड़ा के गांव-गांव तथा घर- घर जाकर स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों से जनता को जागृत करने का कार्य किया। सन 1942 को त्रिलोक सिंह का स्थानांतरण बागेश्वर के लिए कर दिया गया। सन 1942 में सत्याग्रह तथा भारत छोड़ो आंदोलन ने गति पकड़ ली थी। इस समय त्रिलोक सिंह को पुन: गांधी आश्रम चनौदा की सेवा में तैनात कर दिया गया। ब्रिटिश हुकूमत को मालूम था कि गांधी आश्रम चनौदा भारत छोड़ो आंदोलन का केंद्र बन गया है। इसे कुचलने के लिए अंग्रेजों ने दमनकारी नीति अपनाई। 8 अगस्त 1942 को अंग्रेजों ने चनौदा आश्रम को चारों तरफ से घेर लिया। गोरे सिपाहियों ने तिरंगा झंडा जो आश्रम के बाहर फहराया गया था उसे निकालने के लिए धावा बोल दिया। बचपन से ही आजादी के इस दीवाने से नहीं रहा गया, उसने गोरे हथियार बंद सिपाहियों को धक्का देकर तिरंगा झंडे को थाम लिया। इस नौजवान के इस हौसले को देखते हुए दमनकारी गोरे सैनिकों ने त्रिलोक सिंह के ऊपर लाठी, डण्डो, बंदूकों के बटों से तीखा प्रहार किया।लहूलुहान होने के बाद भी त्रिलोक सिंह ने तिरंगा झंडा को झुकना नहीं दिया। वह वंदे मातरम और इंकलाब का नारा लगाते हुए तिरंगा झंडे को थामे रहा। अंग्रेज सिपाहियों की दर्दनाक पिटाई के चलते जब आजादी का यह जांबाज अचेत हो गया तब उसके हाथों से तिरंगे की डोर छूटी। अंग्रेजों ने त्रिलोक सिंह पांगती सहित आश्रम के अन्य साथियों को गिरफ्तार कर 9 अगस्त 1942 को अल्मोड़ा जेल में बंद कर दिया। जेल में घायल त्रिलोक सिंह का स्वास्थ्य बेहद खराब हो गया। उन्हें 10 अक्टूबर 1942 को अल्मोड़ा सदर अस्पताल में भर्ती किया गया। 11 अक्टूबर 1942 को उन्हें जेल से भी मुक्त कर दिया गया था। जीवन के अंतिम क्षणों में अल्मोड़ा अस्पताल में उनकी मुलाकात अपने परिवारजनों से भी हुई। शारीरिक दुर्बलता एवं अंग्रेजों के द्वारा किए गए अत्याचार के कारण इस महान सपूत ने 22 वर्ष एक माह 25 दिन की आयु में 26 दिसंबर 1942 को भारत माता के चरणों में अपने को समर्पित कर दिया। 26 दिसंबर को त्रिलोक सिंह की शहादत को आज भी अल्मोड़ा के चनौदा आश्रम में प्रतिवर्ष शहादत दिवस के रूप में मनाया जाता है।